आत्मीयता की पुनर्स्थापना के लिए कशमकश
0 जयप्रकाश मानस
संपादक, सृजनगाथा डॉट कॉम
अजय पाठक की कविता आत्मसंतोषी नहीं, असंतोषी है । उसके भूगोल में घर-संसार की पूर्णता के लिए छटपटाहट है । अजय पाठक की कविता अनात्मीय नहीं, वहाँ आत्मीयता की सुक्ष्म पुनर्स्थापना के लिए एक कशमकश भी है । पाठकीय मन आज की सामाजिक संबंधों की शुष्कता, प्रजातांत्रिक इकाईयों की बदचलनी और नये समय की कुटिल शक्तियों (बाजार, मशीनीकरण) से पीड़ित-प्रताड़ित जनजीवन वाले जनपद में पहुँच जाता है । उसकी अपनी छटपटाहट जनपद की छटपटाहट में एकाकार हो जाती है । तो अजय पाठक की जो अंसतोषी कविता है वह समकालीन मध्यमवर्गीय जिंदगी की अपूर्णता और प्रगति के बरक्स नयी-पुरानी बाधाओं से लिंक्ड हैं न कि उसकी काव्य-कला से । इन कविताओं को जरा गौर से सुनें तो नयी बाधा के रूप में बाजारवाद की धमक सुनाई देती है। और अपनी समग्रता में अब तक परफेक्ट नहीं हो सके इंसान के कुटिल आचरणों की विस्फोट भी, जो पुरानी बाधा है । इन सबों के बीच कविता की सीमा में जगह-जगह सावन, बादल, चाँदनी, पखेरु दिखाई देते हैं; जो केवल प्राकृतिक उपादान की तरह कविता में नहीं आ धमके हैं । सच मानें तो यह इंसानियत को प्राकृतिक यानी सहज, सरल, सरल यानी नेचुरल बनाने का कवि-ध्येय भी है ।
गीत गाना चाहता हूँ में सग्रहित गीतों में प्रायोजित पोज नहीं है, कोई सायास भंगिमा नहीं, कोई मसीहाई ठाठ नहीं, कोई कवि-सुलभ स्वप्निल आकांक्षा भी नहीं । डगर चलते कवि को जो कुछ दिख जाता है, या कवि को अपने घेरे में ले लेता है, वही काव्य-वस्तु का रूप धारण कर लेता है । वे अपने स्पष्टीकरण में कहते भी हैं – “ये गीत विसंगतियों के साक्षात्कार से उपजी भावनाओं की शाब्दिक अभिव्यक्ति भी हैं ।” ये हड़बड़ी में उपजे गीत नहीं हैं । अनुभूतियों की सांद्रता में आयी मनोहारी रचनाएं हैं –
कई बरस तक मन के भीतर
बैठा रहा अबोला ।
आज भोर से वही पखेरू
ज़ोर-ज़ोर से बोला ।
या फिर –
रामू-श्यामू के घर उनकी
घरवाली जब से आई ।
बँटवारे को लेकर दिनभर,
लड़ते हैं दोनों भाई ।
दरअसल इन गीतों में आम जन का समकालीन बोध मुखरित हुआ है । एक सचेत मामूली आदमी जीवन-पथ में चलते हुए तजुर्बे हासिल करता है । ये तजुर्बे प्रचलित संस्कारों, मान्य मूल्यों और सांस्कृतिक निषेधों के निकष ही होते हैं । यदि इन गीतों का गीतकार विशिष्ट मन या नवविकसित दुनिया का मन वाला कवि होता तो जाहिर है यहाँ सामान्य जनों की ओर से उमड़ने वाला पाठकीय आग्रह की संभावना कदाचित् क्षीण होती । ऐसे में यह गीत संग्रह ज्यादा से ज्यादा ड्राइंग रूम की सजावटी किताब बन पाती । वह मामूलियत ही मूल में है जिसकी उत्प्रेरणा में अजय पाठक ने अपनी इस किताब में हिंदी के प्रचलित खास छांदस शैलियों को अपनाया है । यहाँ गीत हैं, ग़ज़लें भी हैं । और दोहेनुमा कुछ काव्य पंक्तियाँ भी ।
इन छंदो को आम जन का बोध कहने के पीछे एक कारण और भी है और वह है - कविता के प्रचलित प्रतिमानों की पकड़ । इन दिनों कविता का मुख्य ट्रांसमीटर है – लोक-संस्कृति । फूहड़ आधुनिकता, प्रौद्योगिकी केंद्रित कुंठित परिवेश और उपभोक्तावाद के विरूद्ध लोक का बखान और बयान इधर हिंदी कविता में एक कारगर अस्त्र के रूप में उभर कर आया है । यह कविता ही नहीं साहित्य की सभी विधाओं में परखा जा सकता है । यह दीगर बात है कि गीतों में वह शुरू से ही संश्लिष्ट रहा है । ग्राम्य बिंबो, कथनों, मुहावरों और चीजों से हिंदी गीत को अलगाना लगभग कठिन है ।
तो डॉ. अजय पाठक की काव्य-भूमि छत्तीसगढ़ का ग्राम्यांचल है । - गीत गाना चाहता हूँ - में लोक-जीवन की छवियाँ यत्र-तत्र भिलमिलाती हैं । इस झिलमिलाहट की सतह में लोक-जीवन गहरे यथार्थ की परछाई भी है । यदि ऐसा न होता तो डॉ. पाठक जाने-अनजाने उस खतरे के शिकार भी हो जाते और तब उनके गीतों में लोक-वस्तुएं समकालीन कविता में फैशन की तरह प्रयुक्त दिखाई देतीं । यहाँ यह कहना लाज़िमी होगा कि गीतकार की सबसे बड़ी ताकत है - लोकराग एवं लोकलय, जो उनके यहाँ धीरे-धीरे विकासमान है । वे इन दोनों रंगों से अपने गीतों में शनै-शनै चमक भर रहे हैं –
अलगू भैया कुछ मत पूछो
हाल बुरे हैं गाँव के ।
पगडंडी पर शूल बिछे हैं,
दिशा-दिशा है धुँआ-धुँआ ।
नदियाँ सूखी पनघट सूना,
पत्थर-पत्थर, कुँआ-कुँआ ।
बरगद-पीपल सूख चुके हैं,
पंछी है बिन छाँव के ।
यहाँ इस और ऐसे अनेक गीतों में प्रयुक्त काव्य-वस्तुएँ सिर्फ किसी प्रतीक के रूप में नहीं अपितु उस लोक चेतना के दबाब में आयी हैं जो गीतकार की सांस्कारिक पूंजी है । यह पंगड़डी, यह कुँआ, ये पनघट लोक-संस्कृति की ही पगडंडियाँ, कुँआ और पनघट हैं, जहाँ भारतीय जीवन-परम्परा का अक्षय कोष भरा पड़ा है । यहाँ ‘अलगू’ शब्द अपने आप में एक प्रकाश-वलय है । उसके आलोक में बरबस प्रेमचंद याद आ जाते हैं । अतीत का वह भारतीय गाँव याद आता है । चौपाल का चित्र खिंच- खिंच जाता है । चौपाल के घनघोर असमंजस में भी अंततः न्याय की जयघोष सुनाई देती हैं । गीतकार ने कहीं भी पंचायती राज व्यवस्था की बात नहीं की है । टूटते हुए गाँव और उसकी समृद्ध परंपरा की बात भी नहीं छेड़ी है । फिर भी जुम्मन मियाँ की तस्वीर क्या इस एक शब्द ‘अलगू’ से नहीं उभरती हमारे स्मृतियों में ! यहीं गीतकार के शब्दानुशासन का अंदाज भी पता चलता है । और यही वह अंदाज भी है, जिसमें गीतकार के यहाँ स्मृतियाँ अभिव्यक्त होती हैं । गीत गाना चाहता हूँ की रचनाएँ भी यही सिद्ध करती हैं कि पुराने क्लासिकल साहित्य की उपयोगिता इस गद्यात्मक सदी में और विकसित होगी, घटेगी नहीं ।
कविता की समग्रता से चतुराई पूर्वक विलगायी नई कविता और इधर शुष्क से शुष्कतम होती जाती समकालीन गद्यात्मक कविता के नाम पर चाहे शिविरबाजी चरम पर पहुँच जाये । चाहे गीतों के साथ अस्पृश्य व्यवहार दिखाने वाले समीक्षकों की कुंभकरणी निद्रा भी न टूटे, फिर भी हिंदी गीत अपने मुकाम की ओर क्रमशः गतिशील बने रहेंगे । यही विश्वास अजय पाठक के गीत संग्रहों की खेपों से भी झलकता है ।
इधर समकालीन कविता की अपेक्षाकृत सरल तराजू में स्वयं को खरा सिद्ध करने के बजाय गीत की कठिन और दुर्धर्ष ज़मीन पर पाँव जमाने के लिए जिन गीतकारों को पहचाना जाना चाहिए उनमें अजय पाठक भी एक हैं । एक गीतकार के रूप में उनकी उपलब्धियों को जब कभी आँका जायेगा उसमें उनका यही निर्णय कारगर कारणों में गिना जायेगा । यद्यपि अजय पाठक की उपलब्धियाँ खोटी नहीं है, न वे छोटी हैं । छंद, लय, तुक आदि पर उनके वशीकरण का प्रभाव है । भाषा बहुकोणीय है । वाक्य विन्यास साफ-सुथरा है । कुछ स्थलों को यदि जानबुझकर नकार दें तो अभिरुचि भी लगभग दोषहीन । यहाँ भी वे उस साधारण मनुष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अपनी श्वेत-श्याम चरित्रों के लिए साधारण बना रहता है । दोनों गुणों से एक दूसरे की समीक्षा करते हुए और स्वयं को और अधिक पूर्ण बनाते हुए ।
जब हम साधारण मनुष्य को सभी कोणों से देखते हैं तो उसके आसपास उदासियाँ और हताशा पसरी दिखाई पड़ती हैं । यह आज का सच नहीं प्रत्युत साधारण मनुष्य का स्थायी सच है । हर कालवधि में साधारण मनुष्य़ अपनी उब, उकताहट, निराशा, सीमाओं के साथ जीता है । जागता भी है इसी की आवाज़ से । इस जागरण को अजय पाठक के गीतों में भी जब हम देखने का प्रयास करते हैं तो वह पहले पाठ में नहीं दिखाई देता परंतु दूसरे-तीसरे पाठ में वह अपने धुँधलकों को चीर कर सम्मुख आ खड़ा होता है । इस दृष्टि से अजय पाठक के गीतों में उदासी, हताशा की मोहरी बज रही है पर यह यथार्थ से पलायन-नाद नहीं बल्कि कवि की असमाप्त बेचैनी है जो पृथ्वी, परिवेश, परिवार और पर्सनल दुख की सतत् वृद्धि से पैदा हुई है । वेचैनी में हताशा और उदासी स्वाभाविक है । उनकी – पार्थ के सम्मुख- गीत का उदाहरण लेते हैं –
आजकल के देवता को
क्या भला अर्पित करें हम ।
पाप को वरदान हासिल
पुण्य ही निष्फल रहा है ।
एक गीत और लेते हैं – परिचय । यह परिचय दरअसल गीतकार अजय पाठक का निजी परिचय नहीं वह आम दुखी जन, हताश जन, उदास जन का परिचय ही है । वे कहते हैं –
दावानल के बीच नगरिया
चलकर आता-जाता हूँ ।
पीड़ा की अनवरत कथाएँ
गीत व्यथा के गाता हूँ ।
दरअसल इन उदासियों में संघर्ष के जुगनू भी टिमटिमाते हैं और यही टिमटिमाहट आम जन के भीतर सोया हुआ आशावाद है ।
मुझे अक्सर एक प्रश्न मथता रहता है । कविता में कितनी गोपनीयता हो सकती है और कितना खुलापन ? क्या सचमुच कविता में गोपन का स्पेस होना चाहिए । विज्ञान के शब्दों में कहें तो वह कितना भौतिक हो सकती है और उसका रसायन कैसा होना चाहिए ?
इसी अनुप्रसंग में अजय पाठक के एक गीत पर चर्चा लाजिमी है । कदाचित् मेरी राय की झलक भी आपको मिल जाये । पृष्ठ 71-72 में संग्रहित उनका गीत है- गजरा ।
गजरा टूटा
कजरा फैला
अस्त-व्यस्त हो गई बेडियाँ
बिंदिया सरकी
आँचल ढरका
धुली महावर लगी एड़ियाँ ।
साँसों की संतूर बजी थी
पायन की खनखन यारों
जेठ माह की भरी दुपहरी
बरस गया सावन यारो
कंगना खनका
संयम बहका
प्यासा-प्यासा मन भीगा ।
चूड़ी टूटी
बिछुआ सरका
और पाँव तक तन भीगा ।
बिखर गई बंधन की डोरी
निखर गया तन मन यारो
कुंकुंम फैला
रोली भीगी
अक्षत-चंदन गंध घुली ।
अलकें बोझिल
निद्रालस में
लगती हैं अधखुली-खुली
सांसों की वीणाएं गूंजी ।
दूर हुआ अनबन यारो
इस गीत में एकबारगी प्रणय की छवि नहीं उभरती पर अपनी भाव-भंगिमा में शुद्ध और निष्कलुश प्रणय की मुद्रा है यहाँ । यह संग्रह की अन्य सभी गीतों से वज़नी भी है । वज़नी इसलिए कि इस रचना में पाठकों के लिए अर्थों के मायावी संसार में भटकने और वास्तविक अर्थ को पकड़ने का सूत्र भी है। यहाँ सारे बिंबों को सर्वनिष्ठ बनाये बगैर कवि द्वारा रचे गये वास्तविक चित्र को नहीं पकड़ा जा सकता है । दरअसल यह प्रणय-क्षणों का रागात्मक श्लील चित्र है । श्लील इसलिए कि सब कुछ का अर्थ देने वाले शब्द निहायत श्लील और शांत हैं । उनमें कहीं भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं है । जीवन के स्थायी किंतु गोपन कार्य व्यापार की सांस्कारिक अभिव्यक्ति जिस कला के साथ पाठक ने दी है वह साबित करता है कि गीतकार के कदम ऊँचे पायदानों की ओर है ।
दरअसल कविता कुछ हद तक गोपन भी है । कविता अनकहा भी है । वह बिना कहे भी कुछ न कुछ कहना चाहती है । और शायद यही कविता को बहुकोणीय बनाती है । जो कवि या गीतकार कहता है वह अंतिम संप्रेषित अर्थ नहीं होता । उसमें ऐसा कुछ जरूर होता है जो नये अर्थों के साथ पाठकों तक पहुँचता है । हम इसके कारणों पर जाकर बिषयांतर नहीं होवेंगे । जैसा कि यह सच है तो कविता के अर्थ में यह एक रासायनिक परिवर्तन है । यह कविता का रसायन है । केवल भौतिक अर्थों या कवि द्वारा लक्ष्यित या निर्दिष्ट अर्थों की पहुँच के लिए तो महज कोई कवितायी नहीं करता । कम से कम एक गंभीर कवि तो कदापि नहीं । यदि यही करना है तो कवितायी में काहे को माथा गरम करना । कविता यहीं पर भाषण से इतर विधा है । वह संबोधन होकर भी शुष्क वार्तालाप नहीं है । यदि ऐसा है तो वह प्रलाप है ।
प्रगतिशील कविता में भाषा जनता तक पहुँचने की गरज से लगातार सरलीकरण का शिकार होती चली गयी है । वह कदाचित् अनपढ़, रीजिड़, नासमझ, दलित, दमित और पिछड़ी जनती तक पहुँची भी हो किन्तु वह अपनी तथाकथित कविताओं से उन रसों का वितरण नहीं कर सकी होगी जिसे कविता का अनिवार्य उद्देश्य कहा जाता रहा है ।
वैसे तो एक सच्ची कविता मन का आलाप है । मन का संताप है । बुद्धि का आक्रोश है । विचार का उद्घोष है । पर वहाँ केवल शब्द नहीं होते । वहाँ केवल अलंकार भी नहीं होते । मात्र अर्थ भी नहीं । इस सबसे से अधिक महत्वपूर्ण एक समग्र आल्हाद भी होता है । इस आल्हादकारी मनोक्रियाओं से मनुष्य अपने होने की सार्थकता से जुड़ता चला जाता है । या यह कहें कि कविता इतनी ही उत्प्रेरणा तो अवश्य है । डॉ. पाठक के पास साधारण मनुष्य के साधारण मनोभाव श्रृंखलायें होने के बावजूद उनके यहाँ विकसित होता कलात्मकता का आग्रह भी है । कला कवि की जादुगरी है । और थोड़ी सी भी जादुगरी एक सक्रिय कवि में नहीं है तो अच्छा है कि वह कविता के जनपद से प्रवासित हो जाये ।
गीत गाना चाहता हूँ में मात्र परपंरात्मक भावों का मनुहार ही नहीं है वहाँ उसे उसके अपने रचनात्मक सरोकार के लिए भी पढ़ा जाने का आमंत्रण भी है । कहते हैं कि सरोकारो से संश्लिष्ट कविता एक तरह से राजनीतिक कार्य व्यवहार भी है । इस संदर्भों में कविता कवि की निष्पाप, निद्वंद्व और आध्यात्मिक राजनीति भी है । अर्थात् कविता एक चेतनावान् और परिवर्तनकामी नागरिक की राजनीति है । कविता शब्दशिल्पियों की शाब्दिक और सांस्कृतिक राजनीति है । आज के दौर में राजनीति और कविता दोनों को अलग करके देखना ज़रा कठिन है । यह इसलिए नहीं कि आज का समय राजनीति से संचालित होता है । यह राजनीति स्वयं में दशा नहीं है, समाज की, युग की, पीढ़ी की दिशा भी है । इसलिए कला भी है और विज्ञान भी । जीवन की जरूरी चीज भी । उसे साधे बिना जीवन का कार्य-व्यापार कठिन है ।
भारतीय राजनीति पत्थरों का मरुस्थल है । वहाँ संवेदना की किलायें ध्वस्तीकरण के कगार पर हैं । विगत 5-6 दशको में स्वप्नों का चीरहरण बदस्तुर जारी है । विकास की सारी रणनीतियाँ एक-एक कर ध्वस्त होती चली जा रही हैं । आम भारतीय इससे सर्वाधिक पीड़ित और चिंतित हैं । यही चिंता अजय पाठक की कविता का तीसरा मुख्य़ टोन है । इस श्रेणी में उनके कई गीतों को एक बौद्धिक हस्तक्षेप के रूप में लिया जाना चाहिए । खासकर – बिखरे हुए घर-बार, सियासत, वीर लोग, गाँव, रस्ता कट जाएगा, मंजर देख ज़रा, हाल बुरे हैं, मर्यादा, प्रणय गीत कैसे गाएं, लोकतंत्र आदि शीर्षक वाले गीतों को । लोकतंत्र की एक बानगी देख ही लेते हैं जहाँ प्रचलित संविधान की कमजोरियों से रोज हो रही धोखाओं के विरूद्ध एक आक्रोश है –
भारत के मानसरोवर पर कौबे जब तक मंडरायेंगे
हंसो के हिस्सों की मोती ये मूरख चुगते जायेंगे
सब हंस व्यथाओं के चलते जब रोयेंगे पछतायेंगे
कौबो ने छोड़ दिया जिसको उस जूठन को ही खायेंगे
तब तक यारों मैं समझूँगा यह गंदा एक अखाड़ा है ।
यह लोकतंत्र इक दलदल है या सुअर का बाड़ा है ।
नये समय की प्रौद्योगिकी के धवल चरित्र पर हम विश्वास करना जान लें और इसी अनुक्रम में अभिव्यक्ति के तकनीक आधारित माध्यम इंटरनेट या अंतरजाल से छपे हुए कागज की तरह जरा सा भी जुड़ जायें तो वह सच्चे अर्थों में साहित्य और प्रकारांतर से हिंदी के लोकव्यापीकरण की दिशा में भी एक खास कदम सिद्ध होगा । श्रेय का श्रेय और प्रेय का प्रेय । ठीक उस तरह से जिस तरह से डॉ. अजय पाठक के नाम अंकित है । डॉ. अजय पाठक का यह गीत संग्रह छत्तीसगढ़ का पहला ऐसा गीत संग्रह है जो अंतरजाल पर भी अपनी कलात्मता के साथ कई देशों में पढ़ा जा रहा है । बकायदा प्रतिक्रिया के साथ भी – वाशिंगटन से रेणु आहूजा कहती हैं इसगीत का संग्रह प्रस्तुतिकरण निःसंदेश अपने आप में अनोखा प्रयास है । वे कबीरा नामक गीत की पंक्तियों –
पीर बहुत है भीतर गहरी । कैसे पाएं थाह कबीरा ।। पर कहती हैं – यह दो पंक्तियाँ मानव मन के अंतरमन की दशा का बखान करती हैं । अजय जी हम तो इतना ही कहना चाहेंगे कि बखान करे जो मन की पीरा । गीत वही सांचा कबीरा । जब कोई रचना नयी कुछ रचने की उर्जा से भरी हुई हो तो फिर क्या कहिए । और यह उर्जा प्रमाणित तौर पर अजय पाठक में हैं । अन्यथा रेणु जी दूर देश में बैठी ये पंक्तियाँ क्यों कर लिख सकती ।
21 वीं सदी के हिंदी गीतकारों की सूची में समीक्षक अपनी-अपनी दृष्टि से उन्हें चाहे किसी के भी आगे-पीछे सरका सकते हैं । पर उनका वह स्थान अब कोई छीन नहीं सकता जो उन्हें अभिव्यक्ति के नये और सर्वव्यापी माध्यम इंटरनेट ने दिया है और वह है उनकी इस कृति का अंतरजाल पर ब्लॉग तकनीक पर निर्मित संपूर्ण विश्व में प्रथम ऑनलाइन पूर्ण गीत संग्रह होना ।
(कृति के ऑनलाइन संस्करण के विमोचन अवसर पर समीक्षा आलेख )
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