
मौन हूँ मैं, मौन हो तुम !
मैं व्यथा हूँ, कौन हो तुम ?
मैं गहन संवेदना की,
बात तुमसे रह रहा हूँ ।
रिक्त अंतर है, उसी की-
शून्यता को भर रहा हूँ ।
चाहता विस्तार हूँ मैं,
किन्तु केवल गौण हो तुम ?
साधना के पंथ पर मैं,
चल रहा हूँ पग पढ़ाए मैं,
चल रहा हूँ पग बढ़ाए ।
चाहता हूँ इस विजन में,
साथ कोई और आए ।
जानकर मेरी विकलता,
अब भला क्यों मौन हो तुम ?
देख लो मुझको निकट से,
अस्मिता मेरी वही है ।
रंग मेरा है पुराना,
रूप भी बिल्कुल वही है ।
कल्पना में रंग भरते,
स्वप्न देखा जो,
मौन हो तुम । मौन हूँ मैं,
मैं व्यथा हूँ, कौन हो तुम ?
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