
मेरे कवि तुम कब सोते हो
कलम चलाकर रात-रात भर,
जगती के कल्मष धोते हो ।
मेरे कवि तुम कब सोते हो
वंचित इच्छाओं की खातिर,
तुम पाते हो कष्ट अपरिमित ।
सोचा करते हो शोषण की,
काया कैसे होगी सीमित ।
हँसते हो निष्प्राण जगत पर,
और द्रवित होकर रोते हो ।
मेरे कवि तुम कब सोते हो
कंचन वर्ण कुसुम कलियों का,
सौरभ-गंध लिए तन-मन में,
ताल, सरोवर, नदियाँ, झरनें,
विचरण करते हो गिरि-वन में ।
अपलक देखा करते हो तुम,
और वहीं पुलकित होते हो ।
मेरे कवि तुम कब सोते हो
नीति, मूल्य, मर्यादा ढहती,
सुखवादी भौतिक धारा में ।
वैभव के हाथों बंदी है,
मानवता जैसे कारा में ।
क्या होगा यह सोच-सोच कर,
तुम कितने व्याकुल होते हो ।
मेरे कवि तुम कब सोते हो
कभी गीत के छंद-छंद की,
रचना करके गान सुनाते ।
योगी और वियोगी मन को,
संबल देखवे बोते हो ।
मेरे कवि तुम कब सोते हो
रहते हो कल्पित संसृति में,
जिसके सिरजनहार तुम्हीं हो ।
उसके संहारक हो तुम ही,
पोषक-पालनहार तुम्हीं हो ।
उसके संहारक हो तुम ही,
पोष्क-पालनहार तुम्हीं हो ।
मिलन-विरह की इस दुनिया में,
दो पल का सुख भी खोते हो ।
मेरे कवि तुम कब सोते हो
By- www.srijangatha.com
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