
फूल था, पाषाण हूँ अब
रंग मेरा धो गई हैं,
शीत में गिरती फुहारें ।
गंध लेकर के गई है,
लौटकर जाती बहारें ।
कोष मधु का पी गयी हैं,
तितलियाँ कुछ मनचली सी,
जीर्ण पत्तों की तरह,
उतरा हुआ परिधान हूँ अब,
फूल था, पाषाण हूँ अब
काम आता ही रहा मैं,
अनवरत संपूर्तियों के ।
आरती बनकर जला हूँ,
सामने जिन मूर्तियों के ।
एक पल को ही बुझा तो,
कोप का कारण बना मैं ।
बोध सारा खो गया हो,
अस तरह अंजान हूँ अब ।
फूल था, पाषाण हूँ अब
हाँ कभी था मैं धरा का
जगमगाता वह सितारा,
सामने जिसके दिवाकर का सभी आलोक हारा ।
आज अंबर की निशा के
गर्त में आकर पड़ा मैं,
जो अंधेरों में घिरा हो
वह जटिल अज्ञान हूँ अब
फूल था, पाषाण हूँ अब ।
By- www.srijangatha.com
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