
कच्ची मिट्टी का होता है,
प्रेम-खिलौना पाठक जी !
तुमको समझाया था पहले,
अब क्या रोना पाठक जी ?
तुम कोमल-सुकुमार कवि थे,
क्या तुमसे वह संभव था ?
चट्टानों को तोड़-तोड़कर,
पत्थर ढोना पाठक जी ।
सच्चे हो इंसान, मगर हो
दुनियादारी में कच्चे ।
पीतल भी तुमको लगता है,
सच्चा सोना पाठक जी ।
दीपक से मनुहार किया, तो
पंख जलाकर आओगे
मरघट तक यह ले जाता है,
रूप सलोना पाठक जी।
बहुत कठिन है नेह-डगरिया,
कैसे तुम कर पाओगे ?
अपने हाथों अपने पथ पर,
काँटे बोना पाठक जी ।
धन को फूँका, धर्म गँवाया,
ठगिनी माया के पीछे ।
जो कुछ था सब गया तुम्हारा,
अब क्या होना पाठक जी ।
ज्ञानी जन की बात न समझे,
कूद पड़े अंगारों पर ।
प्रेम लपट है जिसके भीतर,
आग बिछौना पाठक जी ।
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By- www.srijangatha.com
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