दावानल के बीच नगरिया....
चलकर आता-जाता हूँ ।
पीड़ा की अनवरत कथाएँ....
गीत व्यथा के गाता हूँ ।
मेरा मत आवाहन करना,
तुम विचलित हो जाओगे ।
मैं सपनों की चिता सजाकर,
उसमें आग लगाता हूँ ।
मृत्यु और मरघट तो मेरे ,
प्रतिपल के सहभागी हैं ।
सहज हमें स्वीकार सभी कुछ,
कह सकते हो, त्यागी हैं....
जीवन के उल्लास मधुरमय
विलग हुए बरसों बीते,
विचरण करता हूँ निर्जन में,
कांटों पर सो जाता हूँ ।
दुख में सुख की परछाई के,
अनुभव ही दिन-रात किए ।
उर में गहरी उत्कंठा के,
जलते हैं अनवरत दिए ।
प्यास-तृप्ति का भुक्ति-मुक्ति का,
साधक भी, साधन भी हूँ
मृगतृष्णा के मकड़जाल की,
उलझन को सुलझाता हूँ ।
पाने-खोने की चिंताओं
की बातों को कौन कहे ?
पाया तो निःशब्द रहे,
कुछ खोया तो भी मौन रहे ।
इसी तरह जीवन की नैया,
वही जग की धारा में।
मिले नेह की धार जहाँ पर,
मैं उसका हो जाता हूँ ।
मेरी निजता की समरसता-
में खोया है जग सारा ।
मैं जीता तो दुनिया जीती,
मैं हारा तो जग हारा ।
कटुता और हलाहल के स्वर
अपने अधरों से पीकर,
मधुर गीत की रचना करके,
दुनिया को बहलाता हूँ ।
Thursday, August 10, 2006
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment