Thursday, August 10, 2006

अकेला हो गया मन

चमकती है कहीं बिजली,
गिरा है झूम कर सावन ।
अकेला हो गया मन ।

सुलगती आग में जैसे ,
झुलस कर रहा गया है तन ।
अकेला हो गया मन ।

चैन भीतर है न बाहर ही कहीं,
आस भी ओझल हुई दिखती नहीं,
फिर अँधेरा घिर गया होकर सघन।
अकेला हो गया मन।

स्वप्न सारे छल गए विश्वास में,
अब उदासी भर गई हर सांस में,
और भीतर हो रही तीखी जलन ।
अकेला हो गया मन।

दिन व्यथा की लेखनी लेकर चले,
दर्द के दो गीत दे संध्या ढ़ले,
रात आए और दे जाए कफ़न ।
अकेला हो गया मन ।

हर दिशा में राग-रंजित गान है,
व्यर्थ हैं, अपने लिए अन्जान हैं,
अब असुंदर हो गए सुंदर कथन ।
अकेला हो गया मन ।

प्रीत के आँगन दुआरे बंद हैं,
और नयनों में छलकते छंद हैं,
आँसूओं में घुल गए सुंदर कथन ।
अकेला हो गया मन ।

भीड़, मेला, पर्व या त्यौहार में,
तन भटकता रह गया संसार में,
इक मिलन की आस की लेकर लगन ।
अकेला हो गया मन ।



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By- www.srijangatha.com
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