Thursday, August 10, 2006
हाल बुरे हैं
घायल होकर हम लौटे हैं,
घाव हरे हैं पाँव के ।
अलगू भैया कुछ मत मूछो,
हाल बुरे गाँव के ।
पगडंडी पर शूल बिछे हैं,
दिशा-दिशा है धुआँ-धुआँ ।
नदिया सूखी पनघट सूना,
पत्थर-पत्थर ,कुआँ-कुआँ ।,
बरगद-पीपल सूख चुके हैं,
पंछी है बिन छाँव के ।
सबकी छाती पर है जैसे,
जाने कितना बोझ धरा ।
सबकी अँखिया सूनी-सूनी,
मन में सबके जहर भरा ।
प्यार मोहब्बत भाईचारा,
अब हैं केवल नाम के ।
रामू-श्यामू का घर उनकी,
घरवानी जब से आई ।
बँटवारे को लेकर दिनभर,
लड़ते हैं दोनों भाई ।
हमने ऐसे दुर्दिन देखे ,
मधुबन जैसे ठांव के ।
अपराधी कर रहे सियासत,
बने हुए सबके आका ।
डारा हुआ है राम खिलावन,
डरे हुए जुम्मन काका ।
चौपालों पर खुली बिसाते,
शकुनी जैसे दांव के ।
बात-बात में लाठी-फरसे,
जात-पात पर खून बहे ।
नेम-धरम के बंधन टूटे,
मर्यादा की कौन कहे
खेवनहार वहीं दिखते हैं,
दुश्मन हैं जो नाव के ।
अलगू भैया कुछ मत पूछो,
हाल बुरे हैं गाँव के ।
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