Thursday, August 24, 2006

वही पखेरू


कई बरस तक, मन के भीतर,
बैठा रहा अबोला ।
आज भोर में वही पखेरू,
ज़ोर-जोर से बोला ।

धीरे-धीरे खामोशी की,
टूटी है तनहाई,
सपने सारे जाग उठे हैं,
ले-ले कर अगड़ाई ।
तेज़ हवाएँ चली,
पेड़ का पत्ता-पत्ता होला ।
आज भोर में वही पखेरू,
ज़ोर-ज़ोर से बोला ।

सर्द हवाएँ सम्मोहित कर,
बाँ गई बंधन में ।
चांदी-जैसी धूप सुबह की,
बैठ गई आँगन में ।
सुधइयों ने चुपचाप कथा का,
पट धीरे से खोला ।
आज भोर में वही पखेरू,
ज़ोर-ज़ोर से बोला ।

मधु के दिन कितने बीते हैं ,
कितनी ही पतझारें ।
जितनी चंद्रकलाएँ देखीं,
उतने टूटे तारे।
आँखों पर आ कर के ठहरा,
फूलों वाला डोला।
आज भोर में वही पखेरू,
ज़ोर-ज़ोर से बोला ।

सपना देखा
भूखे-प्यासों की बस्ती है,
तू भी कोई अपना देख ।
भूख तो बैठ कहीं पर,
दाल-भात का सना देख ।

तुझ पर रहमत है अल्ला की,
अब तक भी तू ज़िंदा है ।
जो भूखा है पाँच दिनों से,
उसका आज तड़पना देख ।

तेरा शक्कर तेरा सीधा,
हलुआ खाते पंडित जी ।
बैठ वहीं चुपचाप जमीं पर
राम नाम का जपना देख ।

तेरे मुंह से लिया निवाला,
वे तुझसे भी भूखे हैं ।
भूखे श्वानों को रोटी पर,
फिर से आज झपटना देख ।

आज पेट की ज्वाला में जो,
लपटें उठती गिरती हैं ।
उसकी भट्ठी गिरती हैं ।
उसकी भट्ठी में जीवन का,
लोहे-जैसा तपना देख ।


By- www.srijangatha.com

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