बोल सजे हैं, परदेशी हैं –
पर गीतों के प्राण सखी री ।
बिंदिया, कंगन, रोली, चंदन,
मंजुल सुमन, मधुर है वंदन ।
मन की श्रद्धा अक्षत लेकर,
आकुल है करने अभिनंदन ।
नयनों की आभा मद्धिम पर,
दीपक है द्युतिमान सखी री ।
जिन अधरों ने प्यास जताया,
उन अधरों ने चुंबन पाया ।
कहीं देखती हूँ लतिका ने ,
रूखे तरुबर को लिपटाया ।
मिलता काश! हमें भी ऐसा,
कोई तो सम्मान सखी री !
चंदा-सूरज नीलगगन में,
खोए रहते नेह-लगन में ।
धरती पग-पग चलती रहती,
निशा-दिवस के एक जतन में ।
हम ही पत्थर की मूरत हैं
बाकी सब गतिमान सखी री ।
बिरथा ही कट रही उमरिया,
पाहन से बिछ डगरिया ।
संचय की थी साध, मगर अब,
दरक उठी, रिस गई गगरिया ।
मरुस्थल हूँ अब भूल गई मैं ,
पावस का अबदान सखी री !
कैसे गाऊँ गान सखी री ?
बोल सजे हैं, परदेशी हैं-
पर गीतों के प्राण सखी री!
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