Thursday, August 10, 2006

अपना ही संसार



प्रियतम !
मैं तो डूब गया था,
सचमुच ही मनुहार में ।
जिस दिन तुम खोई-खोई थीं,
अपने ही संसार में ।

मैं क्या जानूँ सीमाओं की बात,
तुम्हारी तुम जानो ।
मैं तो निश्छल प्रेम-पथिक हूँ,
मानो या फिर मत मानो ।
ऊँच-नीच की बात भला,
फिर आई क्यों उपहार में ।

अधरों पर खिलते सुमनों के
स्पंदन की चाह लिए ।
प्यासा ही मर गया बटोही,
प्यासी-प्यासी आह लिए ।
तुमने तो बस आग लगायी,
सपनों के संसार में ।

कैसा आज सुरभि का संचय,
हार-सिंगार भला किसको ?
जो कुछ देखा नहीं आज तक,
यौवन-भार भला उसको ?
तुने डाल दिया है हमको,
जीवन के मझधार में ।

इतना तो निश्चित है कि मैं,
चाहे अर्ध्य नहीं दूँगा,
लेकिन भाव –विमुख कोई भी,
श्रद्धा के व्यापार में ।

प्रियतम
मैं तो डूब गया था,
सचमुच ही मनुहार में।
सचमुच ही मनुहार में ।
जिस दिन तुम खोई-खोई थीं,
अपने ही संसार में ।



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By- www.srijangatha.com
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