Tuesday, August 08, 2006

ज़िंदगी


मंद-मंद फागुनी हवा,
गीत एक गुनगुना गई,
तुम न आए किंतु लौटकर,
फिर तुम्हारी याद आ गई।

भावना की तेज़ आंधियाँ,
बह रही है, साँस-साँस में,
पात-पात, फूल झर गए,
आंधियाँ उन्हें बहा गई ।

मौन है ज़मीनो-आसमां,
बेखबर दिशाएँ मौन हैं,
चाँद आज ढा रहा सितम,
चाँदनी सता-सता गई।

झर गए हैं फूल-फूल के,
कुछ पराग ओस में सने,
झर में उतर के सुंदरी ,
चाँदनी नहा-नहा गई ।

जाग रहे हैं, बावरे नयन,
स्वप्न कहीं दूर-दूर है,
पुतलियों के पोर-पोर में,
वेदना समा-समा गई ।

ख्वाहिशों की नींव पर कई,
रेत के बने हुए महल,
फिर उन्हें प्रचंड वेग की,
हर लहर ढहा-ढहा गई ।

भोर की उतर गई किरण,
फूल-फूल मुस्कुरा दिए,
बूँद ओस की ठहर-ठहर,
नेह का पता बता गई।

आज लग रहा यह तन यह मन
भीड़ में घिरे अबोध-सा !
सिसकियाँ न बंद हो सकीं,
कोशिशें रुला-रुला गई।

तेज़ धूप, रेत का सफर-
तिश्नगी मिली है दर-बदर,
एक बूँद की तलाश में,
जिंदगी कहाँ-कहाँ गई ।

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By- www.srijangatha.com

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