Thursday, August 24, 2006

सुन ले मेरे


तेरे भीतर ही काबा है, तेरे भीतर काशी रे,
क्यों बनता है पीर पयंबर हठयोगी सन्यासी रे ।

धर्म वही जो धारण करके मानवता का मान बढ़े,
और इसी के लिए हुए थे, राम यहाँ बनवासी रे ।

परमारथ ऐसे करना कि हरदम इसकी चाह रे,
जैसे प्रियतम हों अंखियों में अंखियाँ फिर भी प्यासी रे ।

ऊँच-नीच की बात नहीं कर, सब हैं एक समान यहाँ,
धरती माता के बेटे हैं इसके सभी निवासी रे ।

परमारथ ही महाधरम है, बाक़ी सब है व्यर्थ यहाँ,
रामानंदी, नाथ, अधोरी या फिर मौन-उदासी रे ।


By- www.srijangatha.com

No comments: