हिल गए निर्णाण सारे,
नींव ढहती जा रही है ।
प्राण के नेपथ्य से फिर,
आज कोयल गा रही है ।
काँपते तन को लिए मैं,
आज बेसुध-सा खड़ा हूँ ।
अण्डहर के बीत कोई,
एक पत्थर-सा पड़ा हूँ ।
और ऊपर से प्रलय की,
धार बहती जा रही है ।
आज सुधियों में उभरती,
एक भूली-सी कहानी ।
और नयनों से उमड़कर,
बह गया दो बूँद पानी ।
बंधनों की फिर सरकती,
डोर छूटी जा रही है ।
भोर ही पहली किरण है,
लुप्त हैं नभ के सितारे ।
शून्य मन की चेतना है,
मौन हैं आंगन-दुआरे ।
भोर लंबी वेदना की,
बात कहती जा रही है ।
By- www.srijangatha.com
Thursday, August 24, 2006
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2 comments:
कार्य सराहनीय है मगर ये पेन्सिल स्केच पूर्णिमा वर्मन के निजी हैं। उन के नाम का उल्लेख कहीं नहीं है, न ही किसी तरह समझ आता है कि ये स्केच पूर्णिमा जी के हैं।
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