Tuesday, August 08, 2006

बिखरे हुए घर-बार

टूट कर बिखरे हुए
घर-बार हैं अब,
अब कहाँ की बस्तियाँ
बाज़ार है अब ।

प्रेम की वह बाँसुरी,
बजती नहीं है ।
अब कहीं भी राधिका,
सजती नहीं है ।
अब नहीं अभिसार की
बातें यहाँ पर,
हर तरफ चलता हुआ
व्यापार है अब ।

आदमी जैसे खिलौना
हो गया है ।
घट गया है और बौना
हो गया है ।
ज़िंदगी चलती मशीनों
की तरह है,
आदमी टूटा हुआ
औज़ार है अब ।

सरहदों में बाँट कर
इंसनियत को,
दे रहे तरजीह बस
हैवानियत को ।
प्यार से मिलते गले थे
कल तलक बह,
जंगजू हैं, हाथ में
हथियार हैं अब ।

कुर्सियों तक जा रही
पगडंडिया हैं,
लाल-पीली और
नीली झंडियाँ हैं ।
है सियासत का सफ़र
महफूज सबसे,
क़ौम का ही रास्ता
दुश्वार है अब ।

टूट कर बिखरे हुए
घर-बार हैं अब,
अब कहाँ की बस्तियाँ
बाज़ार हैं अब ।

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By- www.srijangatha.com
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